नीमच।आज 8 मार्च को प्रत्येक क्षेत्र मे नारी का सम्मान सभी अपने अपने स्तर पर कर रहे है। हर जगह पर सिर्फ नारी का सम्मान, पर क्या सच मे समाज मे नारी को जो सम्मान और स्थान मिलना चाहिए, वो मिलता है या केवल एक दिन उसे देवी बनाकर साल भर उसका अपमान होता है? आज के दिन केवल 5 प्रतिशत महिलाये जिनका सम्मान किया जाता है, प्रत्येक क्षेत्र मे उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए। लेकिन वही दूसरी तरफ बाकि की 95 प्रतिशत महिलाये, जिनके सपनो को कुचल दिया जाता है, इसी समाज की छोटी मानसिकता के तले। शायद ये समाज साल मे एक दिन महिलाओ के लिये सम्मान करके बाकि के दिन उसी नारी की उपेक्षा को तत्पर रहता है। क्या सच मे नारी सम्मान चाहती है? सम्मान होने से वो समाज मे वैसे जी पायेगी जैसे एक पुरुष जीता है, उसकी जिंदगी...?अगर वास्तविकता देखि जाये तो आवश्यकता है, नारी के प्रति डर की। इस समाज मे प्रत्येक व्यक्ति के मन मे नारी के लिए डर होना चहिये.. डर विद्रोह का...विद्रोह अत्याचार के विरुद्ध... विद्रोह अधिकारों के शोषण के विरुद्ध.... ये विद्रोह का डर जब समाज के लोगो मे होगा, तभी नारी अपना जीवन जी पायेगी,जैसे पुरुष जीता है पूर्ण स्वतंत्रता और बिना किसी जंजीरो के। इतिहास मे बहुत कम ऐसी महिलाये है जिन्होंने विद्रोह किया और वो महिलाये युग युगांतर तक मिसाल बन गई, प्रत्येक महिला के लिए और सम्पूर्ण समाज के लिए। कहने को तो नर नारी समान है, परन्तु वास्तविकता सिर्फ हमारे जैसी नारियो को पता है, जो समाज और स्वयं के लिए अनगिनत स्वप्न देखती है, परन्तु उसे ये बोलकर या कहा जाये की डराकर चुप कर दिया जाता है, की जमाना ख़राब है, तुम लड़की हो, ये तुम्हारा काम नहीं। ये शब्द मन को चिर देते है ठीक उसी तरह जैसे किसी आजाद पंछी के पर काट दिए गए हो। उड़ान भरने के लिए कई महिलाये तैयार है लेकिन समाज की क्षीण मानसिकता उसे उड़ने की स्वीकृति नहीं देता, यहाँ केवल पुरुषो की बात नहीं है ये कटु सत्य है की एक महिला भी महिला की भावनाओं को नहीं समझती... चाहे वो माँ हो या बहन वो मर्यादा रूपी जंजीरो मे कैद है जो परम्परा का निर्वाहन कर रही है उसने भी कभी इस बात के लिए विद्रोह नहीं किया की क्यों, क्यों एक लड़की लड़के की तरह पूर्ण स्वतंत्रता से अपना जीवन नही जी सकती,?उसे केवल चार दीवारी मे खाना बनाना और गृहकार्य मे दक्ष होना सिखाया जाता है और यही बस उसका कर्तव्य बताकर उसके छोटे बड़े कई अरमानो की आहुति दिला दी जाती है। एक बेटी, बहन, पत्नी, माँ और बहु जैसे रिश्तो की जंजीरो का नाम लेकर उसे उसी चार दीवारी मे कैद करके जीवन काटने को मजबूर किया जाता है। हमारे शास्त्रो मे भी नारी को दुर्गा और काली के रूप मे सर्वनाश करते हुए भी पूजनीय माना है... तो फिर आज क्यों अबला नारी के रूप मे उसे बेचारी मानकर उसे यदि कोई निर्णय भी करने दिया जाये, तो वो उपकार होता है इस समाज का। आज भी कई स्थानों पर भ्रूण हत्या, दहेज़ प्रताड़ना शारीरिक और मानसिक शोषण के मामले आए दिन सामने आते रहते है, आज भी छोटी बच्चियों से लेकर वृद्धा तक के साथ दुराचार होता रहा है, और यहाँ सबसे आश्चर्य वाली बात तो ये है की दुराचारी घर के बाहर का होने के साथ ही, घर परिवार का हिस्सा भी हो सकता है। बड़े बड़े उपदेश देने वाला समाज एक स्त्री के साथ अपने ही सुरक्षा क्षेत्र मे उसके गरिमा को ठेस पहुँचने से नहीं रोक पाता है। घर से बाहर निकले तो कार्यक्षेत्र मे गरिमा को खतरा, घर मे रहे तो स्वयं के परिवारजनो पर भी अविश्वास और डर की भावनाओं का सामना करना,यदि सच मे नारी सशक्त है तो ये सब क्यों और कैसे? मेरे मन मस्तिष्क मे यही सवाल बार बार बवाल करके जवाब मांगते है, इस समाज से... कहाँ है नारी का सम्मान और सशक्त नारी? चुनिंदा महिलाये जो नारी सशक्तिकरण का प्रतिनिधित्व करती है, क्या वे स्वयं भी इस और ध्यान दे पाती है, कि क्या समाज की प्रत्येक महिला उसकी तरह ही सशक्त है? और यदि नहीं तो क्यों नहीं है? इस सवाल का जवाब ढूंढने का प्रयत्न किसके द्वारा किया गया, किया भी या नहीं? वास्तविकता आज भी यही है की घर का मुखीया पुरुष जो आदेश दे वो महिला को मानना पड़ता है। उसके लिए लक्ष्मण रेखा पुरुष ही तय करता है उसे क्या पहनना है से लेकर उसे क्या और क्यों करना है, कब करना है? सभी निर्णय पत्थर की लकीर की तरह होते है जिन्हे कोई महिला काट नहीं सकती। मन से या मजबूरी मे, उसे सारे निर्णय स्वीकार करने पड़ते है।विवाह के पश्चात् माता पिता पर केवल पुत्र का अधिकार होगा, आर्थिक और सामाजिक रूप से। भले ही माता या पिता पुत्री के साथ रहना चाहे,फिर भी समाज पुत्र को बुरा कहेगा ये सोच उन माता पिता को भी बेमन से जीवन के अंतिम समय के निर्णय भी समाज के विचारधारा के अनुसार लेने पड़ते है। यहाँ कौन सी समानता है? आज भी कई प्रतिभाए घूँघट के पीछे दम तोड़ देती है, आज भी कई बेटियां कम उम्र मे पढ़ाई छोडकर ब्याह दि जाती है, आज भी बदनामी का डर हर माता पिता के मन मे है, इस वजह से अत्याचार भी बढ़ रहै है, आज भी एक विधवा या परित्याकटवा स्त्री का अपने माता पिता के घर मे कोई स्थान नहीं, आज भी माता पिता बिगड़ेल बेटे के पास रहने को मजबूर है ताकि समाज ये ना बोले की बेटी के घर पड़े है। आज भी अकेली स्त्री ही चरित्रहीन कहलाती है.. क्या सच मे अकेली स्त्री चरित्रहीन हो सकती है? चरित्र का हन्ना करने वाला निर्दोष? क्या हो यदि पुरुष अपनी मर्यादा ना लंघे, पुरुष स्त्री पर अधिपत्य जमाना छोड़ दे? यदि देखा जाये तो वास्तविकता मे महिला दिवस की सार्थकता तभी होंगी, जब समाज के इस परिपेक्ष मे परिवर्तन आएगा व स्त्री पूर्ण रूप से स्वतंत्रता होकर अपना जीवन जियेगी, बिना किसी सामाजिक जंजीरो के। अब बात की जाये स्त्री की तो उसे भी स्वतंत्रता के लिए, स्वयं के अधिकारों के लिए पुरुषो से भीख मांगने की आवश्यकता नहीं है। वो स्वयं अपनी शक्तियों से अनजान है। विद्रोह उसे ही करना पड़ेगा। क्युकी यदि स्त्री भक्ति है तो वो शक्ति भी है, करुणा है तो वो क्रोध भी है, स्त्री यदि शांति है तो क्रांति भी, यही वो सृजन है तो विनाश भी वही है, यदि प्रेम है तो त्याग भी वही है। वो एकमात्र योद्धा है जो कि स्वयं का जीवन खतरे मे डालकर मृत्यु से लड़कर एक पुरुष को जन्म देती है। शास्त्र भी कहते है और हमारा इतिहास भी, जब जब नारी ने शास्त्र उठाया है रक्षा ही की है स्वयं की, समाज की भी और सम्पूर्ण संसार की। हमारा देश माता सीता के त्याग, दुर्गा और चंडी का क्रोध, मीरा की भक्ति और लक्ष्मी बाई की शक्ति से भली भाती परिचित है। एक बार फिर से समय है वैसी ही क्रांति का, परिवर्तन प्रकृति का नियम है और समय आ गया है परिवर्तन प्रत्येक मनुष्य की विचारधारा मे लाने का। हम एक ऐसे समाज का हिस्सा है, जहा आज भी, बेटे के सौ खून भी माफ़ है, और बेटी कि आत्महत्या भी पाप है..... हमें ऐसे समाज कि सोच मे बदलाव लाना है, दुनिया को फिर से, नारी की शक्ति का एहसास करवाना है......